अजाने की खोज में कितनी कितने ढंग से स्वामी विवेकानन्द ट्रेन में सवार हुए हैं, इसका निर्भरयोग्य विवरण अगर भारतीय रेलके संचालक तैयार कर देते, तो अनेक प्रश्नों का उत्तर जुट सकता जानते हैं कि परिव्राजक-काल स्वामीजी पेट की बीमारियों के मरीज़ चुके थे। इस पेट के रोग की ताड़ना अमेरिका जाते समय वे डेक के यात्री का जोखिम नहीं उठा सके। डेक की खरीदने जितना धन इकट्ठा हो जाने बावजूद खेतड़ी के महाराजा उनकी समझ गए और उनके लिए उन्होंने श्रेणी की टिकट खरीद दी। परिव्राजक होकर स्वामीजी के पेट की दशा कितनी शोचनीय हो उठी थी, इस बारे में एसपेनिनसुला के जहाज से खेतड़ी-नरेश अजित सिंह को लिखा गया पत्र इस बात का समर्थन करता है। राजासाहब को स्वामीजी ने लिखा, “पिछले दिनों हाथ में लोटा लेकर 24 बार पाखाने जाना पड़ता था, लेकिन जहाज पर आने के बाद पेट काफ़ी ठीक हो गया है। अब उतनी बार पाखाने नहीं जाना पड़ता।'
जब सेहत की ऐसी दशा हो, तो । किसी भी यात्री के लिए रेल के थर्ड क्लास में जाना काफ़ी विपत्तिजनक हो उठता है। लेकिन इस संदर्भ में भी उनकी किस्मत में निन्दा ही जुटी कि संन्यासी होकर भी वे इतने भोग-विलासी हैं कि फर्स्ट क्लास में ही यात्रा किया करते थे। लेकिन स्वामीजी के मामले में काफी खोजबीन के बाद भी इस किस्म की किसी घटना का उल्लेख नहीं मिला। बल्कि यह देखा गया है कि जब उनकी किसी शुभाकांक्षी से भेंट होती थी, तभी वे अपने अगले गंतव्य-स्थान के लिए टिकट कटाने की अनुमति देते थे। लेकिन इससे अधिक कुछ नहीं, यानी संन्यासी रुपए-पैसों से फक्कड़-हाल ही हमेशा अजाने की खोज में निकल पड़ते थे।
बहरहाल, बिना टिकट के यात्री न होते हुए भी भारतीय रेल के डिब्बे में रवीन्द्रनाथ और विवेकानन्द-जैसे महामानव कई-कई बार निगृहीत हुए हैं। रवीन्द्रनाथ स्वयं और अपने पितृदेव के तजुर्गों को काफी दिनों बाद लिपिबद्ध कर गए हैं, जिससे यह प्रमाणित होता है कि राह में मिली हुई अवमानना की यादें सहज ही नहीं मिटतीं। स्वामीजी स्वयं इस बारे में मौन रहे हैं, मगर संयोग से काफ़ी सारी विडम्बनाओं की घटना उनके विश्वस्त जीवनीकार लिपिबद्ध करने में सक्षम रहे हैं। हम दोएक घटनाओं पर नज़र डाल सकते हैं। अकसर यही देखा गया है रेल में अपमान कभी दुर्विनीत सहयात्रियों की तरफ से आता है और कभीबदतमीज़, दंभी कर्मचारियों की तरफ़ से।
विवेकानन्द के जीवनीकारों ने भी यह स्वीकार किया है कि घटना का स्थान और समय की सटीक जानकारी नहीं है। ट्रेन में एक बार राजस्थान जाते हुए उनके डिब्बे में दो अंग्रेज़ सहयात्री भी थे। उन लोगों ने सोचा स्वामीजी महज़ एक फकीर जीव हैं, इसीलिए अंग्रेज़ी में उनका प्रसंग छेड़कर उनका अपमान करते-करते उनका मज़ाक उड़ाने में मगन हो गए। स्वामीजी मानो कुछ भी नहीं समझ रहे हैं, ऐसी भंगिमा बनाए चुपचाप अम्लान चेहरा लिए बैठे रहे। थोड़ी देर बाद ट्रेन एकाएक स्टेशन पर । रुकी। स्वामीजी ने अंग्रेजी में स्टेशन मास्टर से एक गिलास पानी माँगा। तब उन अंग्रेजों को पता चला कि स्वामीजी उन लोगों की भाषा जानते हैं। तब विशेष लज्जित और विस्मित होकर उन्होंने स्वामीजी से पूछा कि उन लोगों की बातचीत समझकर भी बिना बँदभर क्रोध दिखाए, वे खामोश कैसे बैठे रहे? जवाब में स्वामीजी ने कहा, “उनकी इस बात पर सहयात्रियों को पहली बार तो आप जैसों के संस्पर्श में आया नहीं हूँ।' उनकी इस बात पर सहयात्रियों को गुस्सा तो ज़रूर आया होगा, लेकिन उनके तेजस्वी, सुगठित शरीर का दर्शन करके उन लोगों ने अपना क्रोध दबा लिया और उनसे माफ़ी माँग ली।।
अगली घटना आबू स्टेशन की है। ‘युगनायक विवेकानन्द के पूज्यपाद लेखक स्वामी गम्भीरानन्द ने इस अप्रिय घटना का विवरण दिया है- 'स्वामीजी के साथ उनके एक भक्त भी रेल के डिब्बे में बैठे हुए थे। भक्त किसी बंगाली सज्जन से बातें कर रहे था। ऐसे समय एक गोरे टिकट-परीक्षक ने आकर उन बंगाली सज्जन को उतर जाने का हुक्म दिया। लेकिन वे सज्जन खुद भी रेल कर्मचारी थे, इसलिए उन्होंने परवाह नहीं की। वे साहब से बहसबाजी करने लगे। आखिरकार स्वामीजी ने उन दोनों को शांत करने की कोशिश की। साहब और अधिक भड़क गया। उसने रूखे लहजे में कहा, “तुम क्यों बीच में बोलते हो?' स्वामीजी को मामूली संन्यासी समझकर उन्हें डॉटकर चुप कराने के इरादे से साहब ने हिंदी की मदद ली थी। लेकिन जब स्वामीजी भी अंग्रेजी में दहाड़ उठे, “यह तुम! तुम! किसे कह रहे हो? ऊँची श्रेणी के यात्री से कैसे बातें करनी चाहिए क्या तुम नहीं जानते? 'आप' नहीं कह सकते?'
टिकट-परीक्षक साहब ने मामला बिगड़ते देखकर कहा, “मुझसे भूल हो गई ! असल में, मुझे हिंदी ठीक से नहीं आती। मैं तो सिर्फ उस आदमी (फेलो) को..... स्वामीजी से अब और सहन नहीं हुआ। उस साहब को अपनी बात पूरी भी नहीं करने दी। वे बीच में ही उसकी बात काटकर चीख उठे, ‘तुमने अभी-अभी कहा कि तुम हिंदी नहीं जानते। देख रहा , तुम अपनी भाषा नहीं जानते। 'आदमी क्या होता है ? ‘सज्जन' नहीं बोल सकते? लाओ, अपना नाम और नंबर दो, ऊपरवालों से शिकायत करूंगा।' तब तक उनके चारों तरफ़ भीड़ जम गई थीऔर साहब का यह हाल था कि वह किसी तरह भागकर अपनी जान बचाए। स्वामीजी फिर कहा, “सुनो, मैं आखिरी बार कहता हूँ, या तो अपना नंबर दो या फिर देखने दो भीड़ को तमाशा कि तुम जैसा कायर दुनिया में नहीं है।'
साहब सिर झुकाए-झुकाए वहाँ से हट गया। उस अंग्रेज़ के चले जाने के बाद स्वामीजी ने मुंशी जगमोहन की तरफ पलटकर कहा, 'यूरोपीय लोगों से बर्ताव करते हुए हमें किसकी ज़रूरत है, मालूम? ऐसा आत्मसम्मान बोध! हम कौन हैं, किस स्तर के इनसान हैं, यह बिना समझे ही लोग हमसे बर्ताव करते हैं और हमारे सिर पर चढ़ बैठते हैं, वरना वे लोग हमें तुच्छ समझते हैं और उपेक्षा तथा अपमान करते हैं। इस तरह हम दुर्नीति को प्रश्रय देते हैं। शिक्षा और सभ्यता में भारतीय दुनिया की किसी भी जाति से हीन नहीं हैं। लेकिन वे लोग खुद ही अपने को हीन मानते हैं, इसलिए कोई मामूली-सा विदेशी भी हमें लात-झाडू मारता है और हम चुपचाप वह सब सहन करते हैं।'
रेलवे स्टेशन और ट्रेन में अप्रत्याशित विडम्बना का मानो कहीं, कोई अंत नहीं था। आखिरी बार हिमालय-भ्रमण करके उस बार स्वामीजी बेलूर लौटे। समय सन् 1901 की शुरूआत! स्वामीजी पीलीभीत स्टेशन पर आये। साथ में सहयात्री थे, उनके चिर-विश्वासी स्वामी सदानन्द, जो बहुत दिन पहले हाथरस स्टेशन के कर्मचारी थे। पीलीभीत स्टेशन के उस दृश्य का स्वामी गम्भीरानन्द ने यूं वर्णन किया है- 'ट्रेन आते ही स्वामीजी और सदानन्द दूसरी श्रेणी के डिब्बे में प्रवेश करने जा ही रहे थे, ऐसे समय हंगामा मच गया। इस युग के पाठक-पाठिकाओं को यह याद दिलाना ज़रूरी है कि उस ज़माने का सेकेंड क्लास और इस ज़माने का सकेंड क्लास एक जैसे नहीं हैं। उन दिनों थर्ड क्लास और इंटर क्लास के ऊपर सेकेंड क्लास हुआ करता था।
पीलीभीत की घटना- ‘उस डिब्बे में कर्नल पदस्थ एक अंग्रेज सेनाध्यक्ष पहले से ही मौजूद थे। उन दोनों नेटिव' को डिब्बे में प्रवेश करते देखकर उनका मन विद्वेष से भर उठा। लेकिन उनको सीधे- सीधे बाधा देने की हिम्मत नहीं पड़ी। आखिरकार उन दोनों अवाञ्छित व्यक्तियों को वहाँ से हटाने के लिए वे स्टेशन- मास्टर की शरण में पहुँचे। अंग्रेज़-पुंगव के रोब-दाब से हतबुद्ध स्टेशन-मास्टर, कानून की मर्यादा लाँघकर, स्वामीजी के करीब आए और उन्होंने विनीत भाव से उन्हें डिब्बा खाली कर देने का अनुरोध किया। लेकिन स्वामीजी इस तरह सिर झुकाकर स्वदेश और स्वजाति का अपमान बढ़ाने को तैयार नहीं थे। उस व्यक्ति की बात पूरी होते-न होते वे गरज उठे, ‘आपकी हिम्मत कैसे पड़ी मुझसे यह बात कहने की? आपको शर्म नहीं आती?' मामला बिगड़ते देखकर स्टेशन मास्टर वहाँ से खिसक लिए। इस बीच अपने अभिप्राय के अनुरूप काम बन गया, इस विश्वास के साथ कर्नल अपने स्थान पर लौट आए। उन्होंने देखा, स्वामीजी और सदानन्द, पहले की तरह वहाँ जमे हुए हैं। उनके तन-बदन में जैसे दुबारा आग लग गई। इस छोर से उस छोर तक पूरे स्टेशन को गुँजाते हुए वे चीख उठे, ‘स्टेशन मास्टर! स्टेशन मास्टर।' 'स्टेशन-मास्टर को आवाज़ देते हुए वे दौड़-भाग करने लगे। लेकिन स्टेशनमास्टर तो हवा हो गए थे। इधर ट्रेन छूटने में भी देर नहीं थी। इस बीच साहब को एक तरकीब सूझ गई। उन्होंने अपनी गठरीमोटरी सँभाली और दूसरे डिब्बे में चले गए। उनकी वीरता वहीं समाप्त! स्वामीजी उनका पागलपन देखकर अपनी हँसी नहीं रोक पाए। ऐसी थी समसामयिक भारतवर्ष की दशा।'